Wednesday, September 5, 2007

डाक, डाक, डाक



बैठे-बैठे घड़ी की ओर देखा तो दुपहर के तीन बज रहे थे, डाक आने का समय हो गया था. सोचा जा कर एक बार देख लूँ, शायद आ गई होगी। ऐसा नहीं कि कोई चिट्ठी आई होगी किसी परिचित जन की, किसी निकटतम मित्र या संबंधी की। मेल में कागज़ों का जो पुलिंदा आता है उसमें अधिकांश पत्रिकाएँ, स्टोर्स के कैटालौग, विभिन्न स्टोर्स के सेल के फ़्लायर्स और क्रैडिट कार्ड के बिल्स होते हैं। आज लेबर डे है तो उसके उपलक्ष में अधिकांश स्टोर्स में सेल लगी हुई है। तीन-चार दिन पहले ही उसके फ़्लायर्स आ गए थे। पूरी पत्रिका ही होती है जो यहाँ की सफ़ल मार्किटिंग का द्योतक है। रंगों से भरी, हर चीज़ आकर्षित लगती है, लगता है सबकी ज़रूरत है और बाद में इस दाम पर फिर मिले या न मिले। जैसे डाक भी मायूस हो खुशी का इंतज़ार करती रहती है, कभी-कभी शादी या जन्मदिन के निमंत्रण पत्र भी मेल में आ जाते हैं। गनीमत है राखी अभी भी मेल से आ जाती है, दिल्ली में सबको डाँट डपट कर रखा हुआ है कि ई-राखी मत भेजना, जब तक कलाई पर धागा नहीं हो बाँधने को, तो राखी कैसी ?

समय व्यतीत करने के लिए यदि आपको कोई और साधन नहीं मिले तो आप मेल ले कर बैठ जाईये और समय यूँ ही निकल जाएगा। ये तो ठीक है कि समय निकल जाता है पर समस्या तब होती है जब कुछ पन्नों का अंबार लग जाता है। जैसे प्रत्यक्षा के घर में किताबें धीरे-धीरे अपने लिये जगह खोजती हैं वैसे ही हमारे यहाँ कागज़ के पुलिंदे हैं। यदि आपने छंटाई नही की तो कमरे के हर कोने में अपनी जगह बनाते नज़र आते हैं। बहुत बार तो ऐसा भी हुआ है कि कार्पेट कम और कागज़ ज़्यादा दिखाई देते हैं। इन सब के बावजूद यदि हमें कविता लिखने के लिए खाली पन्ना नहीं मिला तो जंक मेल में लिफ़ाफ़े का पीछे का सपाट सफ़ेद हिस्सा बहुत काम आता है। हमारा कुत्ता विंसटन भी कागज़ के चीथड़े कर के हमारी सफ़ाई में अपना योगदान देता है। किसी और देश में देखी है आपने कागज़ की ऐसी खपत ?

जब हम इस घर में आए तब हमारा परिचय हुआ हमारे डाकिए से जिसका नाम चार्ली है, पैंसठ वर्ष के करीब आयु होगी,बाल और दाढ़ी दोनो सफ़ेद हो चुकी हैं। जब से हम आए हैं तब से इसे ही देख रहे हैं। हमारे परिवार में सब को जानता हैं ।पोस्ट आफ़िस की ओर से जीप मिली हुई है। डाक डालने के लिये दरवाज़ा खटखटाने की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि हमारा मेल बाक्स सड़क के किनारे हमारे घर के आगे लगा हुआ है। यदि मेल हमारे सुंदर,सुदृढ़ मेल बाक्स में नही आती है या फिर बर्फ़ इतनी गिरी हो कि उसका हाथ वहाँ तक नहीं पहुँचे तो उसे दरवाज़ा खटखटाना पड़ता है" दरवाज़ा खुलते ही पूछ लेते हैं कि सब कैसे हैं, हमारे बेटे के साथ विडीयो गेम्स की भी अदला-बदली करते थे । इनका बेटा भी हमारे बेटे के बराबर ही है। क्रिसमस के समय इन्हे सब पड़ोसियों से गिफ़्ट मिलती है। कोई किसी दिन और डाकिया आए तो चार्ली चर्चा का विषय बन जाते हैं कि कहीं वो रिटायर तो नहीं हो गए या फिर तबीयत ठीक नहीं लगती है। चार्ली और मेल अब एक दुसरे के पूरक हैं।

ऐसे ही हमारा मेल बाक्स भी घर का अभिन्न हिस्सा है। इसके आस पास फूल लगाए जाते हैं, पेन्ट भी किया जाता है, सुन्दर बेलों को भी चढ़ाया जाता है। अच्छा ध्यान आया, हमारा मेल बाक्स एक तरफ़ से थोड़ा सा ढ़ह रहा है, लगता है मेल ज़्यादा आ रही है। जा कर मेल देख आनी चाहिए, मालूम है नानाजी से वो दस पैसे वाला पीला पोस्टकार्ड तो नही आएगा जिस पर कभी-कभी दो लाईन लिखी होती थी :

प्रिय दुहिती रजनी,
तेरी चिट्ठी मिली। हम सब यहाँ सकुशल हैं।ये जानकर प्रसन्नता हुई कि वहाँ सब सकुशल हैं। चिट्ठी जल्दी लिखना, तसल्ली रहती है। सदा सुखी रहो, पत्र के इंतज़ार में,
नाना जी

10 comments:

अभिनव said...

बहुत सटीक चित्रण।
नया चिट्ठा प्रारंभ करने हेतु अनेक शुभकामनाएँ। आशा है आने वाले समय में अनूप भाईसाहब और रजनी भाभी की कविताओं के संग उनके संस्मरण तथा अनेक गद्य लेख भी पढ़ने को मिलेंगे।

Udan Tashtari said...

वाह, एकदम जीवंत गद्य. चार्ली को हमारा नमस्कार भी कह दिजियेगा. :)

हार्दिक स्वागत है आपका यहाँ पर भी.

इन्तजार रहेगा आगे भी आपके और अनूप भाई के लेखन का.

अनूप शुक्ल said...

वाह, बहुत खूब। यह चिट्ठा शुरू करके आपने बहुत पुण्य का काम किया। लेख बड़ा अच्छा लगा। एकदम शानदार। हम तो कहते हैं कि आप चाहे कविता कम कर दें, लेकिन यह गद्य लेखन जारी रखें। मजा आ गया पढ़कर। चार्ली का शब्दचित्र बहुत अच्छा लगा। :)

राकेश खंडेलवाल said...

अंतरंग जीवन का हिस्सा, जिसका विवरण दिया आपने
और गद्द्य का माध्यम लेकर एक नई कविता लिख डाली
नहीं शब्द लिख रहा प्रशंसा के, बस मैं इतना कहता हूँ
लिखते रहें आप, पढ़ पढ़ कर, हम भी रहें बजाते ताली

रजनी भार्गव said...

अभिनव अच्छा लगा कि तुमने पढ़ा,यूँ ही लिखते रहो. समीर जी बहुत-बहुत शुक्रिया.अनूप जी
प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद.राकेश जी आपका कुछ
भी कहना आशीष के समान है.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

रजनी भाभी जी,
आपका सुँदर घर और वीन्सन्ट से तो मैँ भी मिली हूँ हाँ चार्ली से नहीँ मिली पर उसके बारे मेँ पढना बडा अच्छा लगा :)
आपने बहोत ही जीवँत चोत्रण किया है और अमरीकन पाती भी उतसुक्ता बनाये रखेगी ...आप व अनूप भाई के शानदार लेखन के इँतज़ार मेँ
आप की ही ,
-- लावण्या
और युनूस भाई व अन्य रेडियो साथियोँ के साथ आरँभ किया रेडियोनामा भी देखियेगा
http://radionama.blogspot.com/

Pratyaksha said...

वाह ! इतने दिनों की चुप्पी के बाद ये खज़ाना ! अब ऐसे ही लिखते रहें । पढकर बहुत अच्छा लगा । पर ये बताईये कि इसे आप दोनों में से किसने लिखा है ?

अनूप भार्गव said...

प्रत्यक्षा:

अब जब तुम ने कहा है कि अच्छा लिखा है तो रजनी ने ही लिखा होगा (कम से मानोषी और फ़ुरसतिया जी तो यही मनवाना चाहेंगे मुझ से) :-)

ePandit said...

हिन्दी चिट्ठाजगत में स्वागत है अनूप जी तथा रजनी जी। उम्मीद है अपनी डायरी नियमित लिखते रहेंगे।

Unknown said...

I am really sorry I just can't figure out how to post my comment here in Hindi.
It was such a nice feeling to know that ki abhi bhi koi to hai jo dak ke aane ki prateeksha karta hai...
adhiktar log to maan chuke hain ki ab daak mein jo bhi aayega kooda kachra hi aayega...
priya janon se to jo bhi samachar aayega email/athwa telephone dwara hi aayega...

delhi se meri shubhkamnaayein.